Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २६६
३८. ।देस राज। खाला ग्राम। दमदा। मौड़॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>३९
दोहरा: समुझायहु सिज़खनि जबहि, देसूहै करि तार।
भीर संग लै नरनि की, आयो गुर दरबार ॥१॥
चौपई: दिवस तीसरे दरशन आयो।
प्रथम अुपाइन धरी जु लायो।
बिनै सनी बानी कहि करि कै।
बंदन कीनि चरन सिर धरि कै ॥२॥
निम्रि देखि कै श्री गुरु पूरे।
कहो बाक बाकनि के सूरे।
आवहु देस राज बनि बैठहु।
जे दिढ शरधा शुभ घर पैठहु१ ॥३॥
सकल देश पर हुकम चलावहु।
जे गुरु सिज़खी सिदक कमावहु।
इह खूंडी किम घर महि राखी?
का गुन करहि सुनवाहु साखी? ॥४॥
सुनि देसू ने सकल सुनाई।
सरवर की खूंडी इहु पाई।
निस दिन रज़खा करहि हमारी।
महिखी धेनुनि देति हग़ारी२ ॥५॥
दूध पूत को अधिक बधावति।
सकल देश तिस बहुत मनावति।
करहि रोट अरपहि तिस ताईण।
हाथ जोरि बंदहि सिर नाई ॥६॥
सुनि सतिगुर ने पुन समुझावा।
हिंदु धरम बन को इह दावा३।
कोण अपनो परलोक बिगारा?
सज़तिनाम को रिदै बिसारा? ॥७॥
जबि जम के बसि पर हैण जाई।१जे द्रिड़्ह शरधा है तां (सिज़खी रूपी) शुभ घर विच प्रवेश करो।
२गअूआण मज़झीआण हग़ाराण ही दिंदी है।
३हिंदू धरम (रूपी) बन ळ इह दावा अगनी (वत नाश करने वाली है)।