Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) २६६
३२. ।युज़ध। जज़टू, मुहंमद खान बज़ध॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>३३
दोहरा: श्री गुर हरिगोविंद जी, महां धीर बलबीर।
भए अरूढनि तुरग पर, लशकर पिखो अभीर१ ॥१॥
चौपई: टोल अशट जिन बंधन करे।
कुछ बावैण कुछ दाएण धरे।
आगै अरु पाछै निज कीनि।
आप बीच आवति बल पीन ॥२॥
तिम टोलनि के आगे टोलि।
करे आपने सतिगुरु बोलि।
डेरा तजीअहि करहु पिछारी।
शलख प्रहारु होहु अगारी ॥३॥
निज निज टोलि बिखै थिरि रहीयहि।
वधि बहुआगै हतनि न कहीयहि।
सैनांपति सभि को समुझाए।
आगै चले सूर अुमडाए ॥४॥
श्री गुरु सभि के बीचि बिराजैण।
मनहु सुरनि महि सुरपति छाजै।
कै जादव महि हरिगोविंद२।
तिम सिज़खनि महि हरि गोविंद ॥५॥
धनुख कठोर हाथ महि धारा।
को नहि ऐणच सकहि बलि भारा।
तीछन भीछन ईछन देखि।
खपरे तरकश भरो अशेख३ ॥६॥
अपर निखंग४ संग अुचवाए।
जबि चहीअहि लेण तुरत चलाए।
श्री करतारपुरै करिवाए।
सिज़खा को दै दै घरिवाए ॥७॥
१बहादुर (गुरू जी ने)। (अ) (आपणे) लशकर ळ दलेर डिज़ठा।
२श्री क्रिशन जी।
३त्रिज़खे ते भानक (खपरे तीर) अज़खां नाल देख देख के सारा तरकश भर लिआ ।संस: तीकशं =
त्रिज़खे। भीं = भानक। ईकशन = अज़ख॥
४होर भज़थे।