Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २६८
बादी बिज़प्र जाति को लहो ॥२८॥
जे करि हमतुझि अरथ सुनावहि।
तअू कलपना अनिक अुठावहि।
धनी पुरख इह, भाग बली है।
किनहु पढाए भांति भली है ॥२९॥
प्रथम पठी हुइ गी किस पास।
इम जानहि, नहि हुइ बिज़सास।
यां ते प्रथम कार इम कीजै।
आप नगर महि जाइ पिखीजै ॥३०॥
जो अपठति हुइ मूढ बिसाला।
तिह बुलाइ आनहु इस काला।
सो अुज़तर दै है तुझ चाहति।
जिन बूझनि हित नीत अुमाहति ॥३१॥
सुनि सतिगुर को बाक रसीला।
बिज़प्र भयो मद ते कुछ ढीला।
गयो नगर महि धीवर१ हेरा।
घर घर नित जल ढोइ घनेरा ॥३२॥
महां मूढ बोलबि नहि जानै।
पेट भरनि लौ कारज ठानै।
कारो बरन बसत्र तन फारे२।
जिन पढते नर नहीण निहारे ॥३३॥
आप पढनि तौ जानहि कहां।
बहु कुरूप मति मूरख महां।
तिह गहि बाणह गयो समुझाई।
इक कारज मेरो करि आई ॥३४॥
घटिका चारिक महि पुन आवहु।
अपनो काज करनि लगि जावहु।
इम कहि संग लिये चलि आयो।
जहि श्री सतिगुर बैठि सुहायो ॥३५॥तिह बिठाइ बैसो करि चाअू।
१झीवर।
२पाटे होए।