Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 255 of 412 from Volume 9

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) २६८

३७. ।श्री रामराइ दिज़ली पुज़जे॥
३६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>३८
दोहरा: सुनति प्रसीदे पिता गुरू,
अरु कारज को काल१।
कहो लेहु अग़मत महां,
जो न सकहि को टाल ॥१॥
चौपई: तव रसना पर करि हैण बासा।
जो तिस ते हुइ बाक प्रकाशा।
कबहु अंनथा होइ सु नांही।
सफलहि ततछिन बाद२ न जाही ॥२॥
अथिरा होइ थिरा जस कहैण३।
लहैण अचरता जे चरअहैण४।
जो नित भरो रहै, नहि रितै५।
सो रित जाइ, नैक जो चितैण६ ॥३॥
म्रिग त्रिशना जहि रेत अनीर७।
तहि करि दहि जलधि८ गंभीर।
श्री नानक सतिगुर समरज़थ।
इज़तादिक सभि तिन के हज़थ ॥४॥
सभि शकतिनि की शकति सरूप।
जिन के अचरज चलित अनूप।
सभि ब्रहमंड तिन के अनुसारी।
आइसु जहि कहि टरहि न टारी ॥५॥
सो तव बचन९ तेज प्रविशायो।
करहु निशंक जथा मन भायो।
को किस कारन करहु अुचारनि।


१(दिज़ली जाणे रूप) कारज दा समां (देखके)।
२विअरथ।
३टिके होए चंचल हो जाणगे जिवेण (तूं) कहेणगा।
४जो विचरने वाले हन ओह जड़्ह रूप हो जाणगे।
५खाली नहीण हुंदा।
६खाली हो जाएगा (तेरे) ग़रा भर देखं नाल।
७जल नहीण है।
८समुंदर।
९तेरे बचनां विच।

Displaying Page 255 of 412 from Volume 9