Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) २६९

३२. ।राजे ने सुपने विच चंडाल जनम पाइआ॥
३१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ३३
दोहरा: भई भोर श्री गुरु अुठे,
करि शनान ते आदि।
गुरुता गादी पर थिरे,
दरसहि सिख अहिलाद ॥१॥
चौपई: गमनो न्रिप ढिग तब कज़लाना।
मिलनि हेत बिरतंत बखाना।
ततछिन कीनसि सगरी तारी।
ले करि साथ अुपाइन सारी ॥२॥
कंचन रजति दंड१ नर गहैण।
महिपालक के आगे रहैण।
सचिव२ सुभट को ले समुदाए।
बसन बिभूखन जिनहु सुहाए ॥३॥
पाइन तेचलि करि महीपाला।
गमनो शरधा धरे बिसाला।
पहुचो सतिगुर के ढिग जाइ।
पग पंकज पर सीस निवाइ ॥४॥
हाथ जोरि बहु बिनै बखानी।
सुनि करि महिमा मैण गुनखानी!
रावरि शरनि परो अबि आई।
इम कहि बैठि गयो समुहाई ॥५॥
तिस छिन महि श्री अरजन नाथ।
पोथी पठति हुते गहि हाथ।
ओअंकार की तुक मुख इही।
लिखिआ मेट न सकीअहि कही३ ॥६॥
जिअुण भावी तिअुण सार सदीवा४।
प्रभु की नदर करे सुख थीवा*।


१सोने चांदी दीआण चोबाण।
२मंत्री।
३किसे तर्हां।
४जिस तर्हां भावी होए (तेरी हे हरी) अुस तर्हां संभाल (रज़खा कर) (अ) जिवेण (रज़ब दी) भावी
होवे (जीअु) संभाल लैणदा है।

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