Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २७४
देहि सनेह न संतन मांही।
इमि सूछम गति जानहिण नांही ॥३४॥
जे इन की मन शंक न जाइ।
मम संगति को का फल पाइण।
पुंन महान ब्रिथा सभि खोवहिण।
अस सणदेह१ मैण जे मन होवहि ॥३५॥
शरधा तागे दोश बिशाले।
अुर निशचा इन कै सभि हाले२-।
इमि सिज़खन पर करुना ठानी।
अदभुत लीला रची महानी ॥३६॥
भए अलोप सिंघासन पर ते।
हुते समीप, न कहूं निहरिते।
देखि चलित्र बिसम मति रही।
अदभुत लीला जाति न कही ॥३७॥
चहुं दिश बोलि अुठे सिख सारे।
तन जुति गुर बैकुंठ पधारे।
परो रौर संगति के मांही।
सतिगुर दरशन प्रापति नांही ॥३८॥
लगर बिखे सेव सभि केरी।करति हुते श्री अमर बडेरी।
सुनि करि चलि आए ततकाला।
परो सिंघासन हीन क्रिपाला३ ॥३९॥
पिखि श्री अंगद की अस लीला।
खरे होइ करि तहां सुशीला४।
अचरज गति कुछ लखी न जावै।
जो सम होइ तअू कुछ पावै५ ॥४०॥
१संसे।
२हिज़ल जाएगा।
३क्रिपालू जी तोण सज़खंा।
४भाव श्री अमरदास जी।
५जे अुन्हां दे ब्रज़बर दा होवे सो कुछ (भेद ळ) पावे।
अगे फेर दसदे हन कि गुरू अमर देव जी ने गज़ल समझ लई, भाव कि ओहो अुन्हां दे तुज़ल सन
ओही समझ सकदे सन।