Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) २७२
३९. ।देसू दा अंत॥
३८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>४०
दोहरा: कितिक दिवस तिस ग्राम महि,
बसे गुरू महाराज।
संगति देखि निहाल हुइ,सिज़खनि सुधरे काज ॥१॥
चौपई: चलदल लगो जंड तिस मांही१।
सतिगुर बाक निफल किम जाहीण।
भयो देवता को तहि बास२।
जो सभि को सुख देति प्रकाश३ ॥२॥
सुठ प्रयंक इक दोस डसायो।
अुज़जल आसतरन सोण छायो।
तिस पर बैठे गुरु महांराज।
दरशन देति रीब निवाज ॥३॥
अपर पंचाइत गुर ढिग आइ।
कंबल पर बैठे समुदाइ।
दरशन करहि होइ अरदास।
अरपहि ब्रिंद अुपाइन पास ॥४॥
अुत देसू दी सुनहु कहानी।
जोण कीनसि निज शरधा हानी।
हेतु परखिबे निशचा तांहि४।
कुछ संकट होयहु तन मांहि ॥५॥
कितिक दिवस गुर पाछे भयो।
कशट संग तन को तपतयो५।
धाइ नाम तिस इसत्री केरा।
बेमुख सरवर ते पति हेरा ॥६॥
भई क्रोध सोण ताड़ो कंत।
तैण किस ते सीखो अस मंत?
१जिस जंड विच पिपल अुग पिआ।
२(पिज़पल होण करके) तिज़थे देवता दा वासा हो गिआ।
३(छाइआ रूपी) प्रतज़ख सुख देण(करके पिपल देवता है)।
४(गुरू जी ने) तिसदा निशचा परखंे वासते।
५तन तप गिआ।