Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) २७२
३३. ।दूजा घोड़ा। जोध राइ दे पास गए॥
३२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>३४दोहरा: इम निशचै करि तुरंग दुख, अुठे गुरू महाराज।
कौतक करति अनेक बिधि, बडे रीब निवाज ॥१॥
चौपई: जाइ तुरंगम को तबि हेरा।
बहति बिलोचन बारि बडेरा।
इत अुत नहि देखित, मुरझायो।
त्रिं दाना ईखद१ ही खायो ॥२॥
जोध संग तबि गुरू बखानी।
ब्रिहु की पीर इसे हम जानी।
अपर न तन महि संकट कोई।
एक थान बंधे रहि दोई ॥३॥
श्री गुर बैन जोध२ सनमाना।
निशचै आप प्रथम ही जाना।
सरब शकति के मालिक रावर।
कहो जु तरकहि सो मति बावर ॥४॥
अबि कर फेर धीर कहु दै हो।
मन इस को थिर भले करै हो।
तबि सतिगुर निज पंकज हाथ।
फेरनि कीनि दिलासे साथ ॥५॥
बदन बिलोचन पीठ अुदारा।
धर करि कर को रुचिर अुचारा३।
नाम जान भाई! कहि करि कै।
त्रिं दाना अचवहु हित धरि कै ॥६॥
गुर घर आइ कशट नहि पावहु।
तन मन की सभि पीर मिटावहु।
जिस को चहैण आइ सोजैहै।
प्रिय प्रेमी को प्रभू मिलै है ॥७॥
सुनि सतिगुर के बाक सुहाए।
१थोड़ा।
२भाई जोध ने।
३हज़थ रज़खके पिआर (दा वाक) किहा।