Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) ३९
३. ।शिकार॥
२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>४
दोहरा: सुनि सतिगुरु के स्राप को, सकल रहे बिसमाइ।
सुधि दमोदरी ढिग गई, बहुति बैठि पछुताइ ॥१॥
चौपई:संकटि पाइ बिसूरति भारी।
-कीनि कहां मैण! नहीण बिचारी।
पति की आइसु मोरि मिटाई१।
नहि आछी किस के मन भाई- ॥२॥
भई निसा गुरु महिलीण गए।
बर प्रयंक पर बैठति भए।
चलि दमोदरी तिस छिन आई।
गुरु के स्राप अधिक डरपाई ॥३॥
मुझ एकलि की सुता न कोई।
रावर ते ही अुतपति होई।
जिस के बाहि बिखै दिय स्राप।
चहो अमंगल करिबे आपि ॥४॥
अपर शकति किसि महि जो मोरै।
जानी परहि आपदा२ घोरै।
करहु क्रिपा फेरहु निज बैन।
नांहि त अूजरि होवहि ऐन ॥५॥
दुहिता प्रिया कुशल सोण रहै।
महां बिघन घरि परिबो चहै।
रहहि बराती कुशल समेति।
सुख सोण पहुचहि बहुर निकेत* ॥६॥
भई दीन पिखि आतुर भारी।
श्री हरि गोविंद गिरा अुचारी।
बिघन मूल मति तैण अुर धारा।
कोण न करति अबि अंगीकारा३ ॥७॥
गुर के सिज़ख लखे असि खोटे।१मोड़ी ते अुलटाई।
२करड़ी विपदा पैणदी दिज़सदी है।
*पा:-कर अुपबाह पहूंच निकेत।
३बिघन ळ कबूल किअुण नहीण करदी।