Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २८०
तन सिसकारन को समुझाए।
जहिण करीर होवै तरु हरो।
तिस के निकट थान मम करो ॥२१॥
मुख प्रसंन इमि कहि सभि काणहू।
खिरो कमल जनु जल के मांहू।
अतिशै सुंदरता छबि बाढी।
लाली अरणोदय१ सम गाढी ॥२२॥
कमल पज़त्र सम बिकसे लोचन।
देखति सभि दिश सोच बिमोचन।
मुसकावति बोलति मन भावति।
सिख सभि पिखि करि बलि बलि जावति ॥२३॥
निज अनद महिण मगन बिलदे।
धारन तागन देहि सुछंदे२।क्रिपा द्रिशटि सोण सभि दिशि देखा।
दीनसि दरशन अनणद विशेा ॥२४॥
पुन सभि के देखति ततकाल।
पौढ गए श्री गुरू क्रिपाल।
अूपर बिसद बसत्र को लीना।
परम धाम प्रसथानो कीना ॥२५॥
तिह छिनि बिधि३ शंकर४ चलि आए।
साध साध मुख बाक अलाए।
गुर आशै५ को द्रिड़्ह बड करो।
अजर जरन निशचै अुर धरो ॥२६॥
अपनी चाहनि हित बडिआई।
करामात नहिण रंचु दिखाई।
अुर गंभीर धीर बुधिवंता।
अचल मेरु सम नहीण चलता ॥२७॥
अपर देव इंद्रादिक आए।
१सूरज अुदय दी लाली।
२देह दा धारना या तिआगणा आप दे आपणे वज़स विच है।
३ब्रहमां।
४शिव जी।
५भाव गुर नानक देव दे आशे ळ।