Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २८६
ब्रहमादि अपर चीटी प्रयंत१।
तिस बिखै सकल पायति न अंति ॥७॥
अस सुमतिवंत कहु कौन होइ।
तिस को बिथार करि कहहि जोइ।
टिक गी समाधि इकरस बिसाल।
नहिण सकहि ताग प्रेमी रसाल ॥८॥
बहु सिज़ख वहिर इकठे सु होइ।
चित चहति देखिबे दरस सोइ।
सुनि जहां कहांपुरि ग्राम बीच।
चलि आए देखिबे अूच नीच ॥९॥
गन हुइ इकज़त्र करते बिचार।
-गुर देहिण दरस तिम करहु ढारि२।
इन को न बैठिओ बनै ऐस।
अबि देहिण दरस तिम करहु जैस- ॥१०॥
सभि कहो ब्रिज़ध को३ आपु जाइ।
सिख संगतानि सुध दिहु पुचाइ।
हित दरस आनि इकठी बिलद।
गन सम चकोरचित चहति चंद ॥११॥
सुनि कहो ब्रिज़ध सभि लखन हार४*।
लेहिण जानि मन की५ बिन अुचार।
निज दया करहिण अपुनी महान।
तबि देहिण दरस सभिहूंनि आनि ॥१२॥
सुनि रहे ठटिक६, कहि सकि न कोइ।
दिन प्रती चाहि, चित चगुन होइ।
सिख सकल महां अकुलाइ भूर।
-कबि देहिण दरश गुर, इज़छ पूर ॥१३॥
१कीड़ी तक।
२तरकीब।
३सारिआण ने बाबे बुज़ढे जी ळ किहा।
४(गुरू साहिब) सभ जाणनहार हन।
*पा:-सभिहिन निहार।
५मन दी जाण लैं वाले हन।
६ठठबर।