Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 271 of 376 from Volume 10

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २८४

४१. ।गुरू जी दी महिमां सुणके रामराइ दी ईरखा। स्राप॥
४०ॴॴपिछला अंसू ततकरारासि १० अगला अंसू>>४२
दोहरा: दिज़ली पुरि की संगतां,
आइ अुपाइन लाइ।
दरशन परसैण गुरू को,
चहैण कामना पाइ ॥१॥
चौपई: तन के रोगी तप, द्रिग, खांसी।
महिमा सुनति जाहि गुर पासी।
धरहि रिदै शरधा सुखरासी।
दरसति रुज गन तुरत बिनासी ॥२॥
गुर सिज़खनि के जबि दुख गए।
अपर समीप तिनहु सुनि लए।
रुज पीड़ति तन संकट पाए।
सुनति सुजसु गुर शरन सिधाए ॥३॥
द्रिग ते दिखहि न दरशन जावद।
अनिक रीति रुज पीड़हि तावद।
चारु मुखार बिंद जबि दरसैण।
तातकाल हुइ आवति हरशै१ ॥४॥
पुरि महि घर घर कीरत फूली।
मनहु मालती बिगसति झूली।
सुनि सुनि पहुचति हैण रुजवारे२।
भरी भीर रहि सतिगुर दारे ॥५॥
होहि रोग को, दोख बिनाशे।
जिम तम तोम तरनि के पासे३।
दरशन सफल होति गुर केरा।
पसरो पुरी ब्रितांत बडेरा ॥६॥
इक दिन सभा सुभट गन केरी।
शसत्र बसत्र युति सजति घनेरी।
महां मसंद धनी दिशि एक।१अनद, सुख।
२रोगी।
३जिवेण गाड़्हा अंधेरा सूरज दे पास (गिआण नाश हुंदा है)।

Displaying Page 271 of 376 from Volume 10