Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २८७

जिम सांति बूंद चात्रिक पिपास।
चकवा न चाहि सूरजप्रकाश।
पतिब्रता तरुनि१ पति के बिओग।
जिम महां कशट ते चहि सणजोग- ॥१४॥
दोहरा: नहिण कोअू जबि कहि सकै, कीनसि अपर अुपाइ।
इक सेवक बज़लू हुतो, सो गुरु सेव कमाइ ॥१५॥
सैया छंद: बज़लू ते नित प्रति सभि सेवा
हुइ प्रसंन सतिगुर करवाइण।
प्रेम जुगति सो नीके करता
सनमुख खरो रहै हित लाइ।
जबि कुछ टहिल करहिण फुरमावनि
तबि सो करति सुधारि बनाइ।
नांहि त ठांढो रहै अगारी,
इमि सतिगुर के चित को भाइ ॥१६॥
बुढे आदि सिज़ख सभि मिलिकै
तिस बज़लू को निकटि बुलाइ।
बिनै बखानी प्रीत महानी
इह संगत बैठी समुदाइ।
सभि चाहति हैण सतिगुर दरशन
सपत दिवस इनि दिए बिताइ।
बिन सूरज पंकज मुरझावहिण
इह गति सभि की परै लखाइ ॥१७॥
तबि बज़लू कर जोरि सभिनि ढिगि
कहति भयो मैण तुम अनुसारि।
जिम तुम कहहु करहुण मैण तिस बिधि
दरशन प्रापति होइण अुदार।
अरग़ गुग़ारनि परअुपकारनि
इसते नीकी और न कार।सभि को ले निज संग गयो दर
खरे करे तहिण बिनै अुचार ॥१८॥
आप निकट सतिगुर के गमनो


१पतिब्रता इसतरी।

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