Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) २८८
४१. ।श्री हरिराइ जी दी दसतार बंदी॥
४०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>४२
दोहरा: नर नारी नित प्रति नए,
कीरतपुरि महि आइ।
सनबंधी सिख संगतां,
रोदति शोक बधाइ* ॥१॥
चौपई: अलप बैस महि श्री हरिराइ।
क्रिया पिता हित करहि बनाइ+।
बीन पुशप सुरसरि पहुचाए+।
अपर जथोचित बिधी कराए ॥२॥
दिवस तीन दस जबहि बिताए।
भयो समाज मनुज समुदाए१।
जहि लौ पहुचि आइबे केरी२।
मिली संगतैण आनि घनेरी ॥३॥
जोधराइ अरु साहिब भाना।
श्री हरिगोविंद संग बखाना।
श्री गुरदिज़ते के जुग नद।
धीरमल है बैस बिलद ॥४॥
सो नहि चलि कीरति पुरि आवा।
तुटो सभिनि ते, का लखि पावा।
पित परलोक भयो अस समां।
आइ न पहुचो कीनि नमां ॥५॥
देनी बनै अबै दसतार।
को रावर ने कीनिस ढार३।
पुरि करतार देनि को जाइ।
अपर नहीण को बनै अुपाइ ॥६॥
+इथे क्रिया दा भाव शाइद प्रेत क्रिया होवे, पर पहिले दिन ग़िकर कोई नहीण आइआ, पिछे
गुर घर विच वैदक लौकिक रीती बंद हो चुज़की है, फिर इह कहिंा दरुसत नहीण। दूसरे फुल
गंगा भेजंे ठीक नहीण जापदे, फुज़ल कीरत पुर ही पाए गए सतलुज विच। तद तोण ही इह रिवाज
सिज़खां विच जारी रिहा है कि फुल एथे जाके पाअुणदे रहे हन। अज़ज तक बी अनेकाण सिख लै के जाणदे
हन, ते कहिदे सुणीदे हन, पताल पुरी कीरतपुर फुल लै के चज़ले हां।
१बहुते पुरशां दा इकज़ठ होइआ।
२जिज़थोण तज़क आअुण दी पहुंच सी।
३रीती।