Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) २८८

३०. ।केश॥
२९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>३१
दोहरा: १सुनि संगति अरु खालसा!
तां दिन ते अस रीति।
जगत बिखै दिनप्रति
वधी कलू कीन बिज़प्रीत ॥१॥
महिपति दीनो दंडि जो
सो अबि धरम सथाप२।
झगरति जुगति अनेक ते
बने चहैण सचु आपि३ ॥२॥
४चोर ठगनि के कारने
बंधन संगल कीन।
विधि निखेध सुर पुर नरक
जग लोगन कहु दीन*३ ॥३॥
संत भगत भगवंति के
इन पर दुंद न जोइ५।
जथा मुसाहिब भूप के
नहि अटकहि कित कोइ ॥४॥
जिनि जानिआ तिन जानिआ
बहुता किआ बकबाद६।करनी वाला तर गिआ
डूबा बकहि जु बाद७ ॥५॥


१गुरू जी सुणा रहे हन।
२भाव सिर मुंनं ळ लोकाण धरम सथाप लिआ।
३आप सज़चे बणना चाहुंदे हन।
४जिवेण चोराण ठगां ळ बंन्हण वासते संगल घड़ीदे हन, तिवेण जगत दे लोकाण ळ (इन्हां ब्राहमणां ने)
विधि निखेधि ते सुरग नरक (दे संगल) पाए हन।
*सौ साखी दा पाठ अरथ खोहलदा है-चोर ठग के कारने बंधन संगल कीन। तिअुण निखेध बिध
सेवकन सुरग नरक बिध ईन।
५(विधि निखेध, सुवरग नरक आदि दुंद=) जोड़े नहीण हन संतां ते भगवत भगवंता दे सिर। (अ)
दुंद=दुज़ख।
६जिस ने (अुपदेश ते कमाई ळ) समझिआ है अुस ने (असलीअत) ळ अनुभव कर लिआ है (फिर
अुह चुप है, जो बहुता बकवास करदा है अुस दा कीह बणिआ भाव ना जानंे वाला) बोलदा है
बहुता पर अुस दा बणदा कुछ नहीण।
७विअरथ।

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