Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) २९०

३८. ।बाबा बुज़ढा जी ने चौणकी तोरी। साईण दास दा प्रेम॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>३९
दोहरा: श्री हरि गोविंद चंद के, सुत अुपजे पशचात।
केतिक मास बितीत भे, सुंदर ब्रिज़धति गात ॥१॥
चौपई: रामो लगति हुती गुरु जारी१।
सो संबंध को रिदे बिसारी।
पति जुति जानो -गुर जगदीश-।
नित अुठि धरति चरन पर सीस ॥२॥
भोजन आदिक सेवा जोइ।
करहि प्रेम ते निज कर सोइ।
अस प्रतीत दंपति को आई।
सेवति सतिगुर शकती पाई ॥३॥
अग़मति सहत भयो अुजीआरा।
चौदहि लोक चरित लखि सारा।
तोण तोण नम्रीभूत बनते।
शकति पाइ करि नहि गरबंते ॥४॥
बिलसति बडे बिनोद२ बिलासू।
तिन के सतिगुरुबसे अवासू।
रामो ले गुरु सुत करि पारू।
बहुत दुलारति देखति चारू ॥५॥
गुर समीप कबि कबि ले जावै।
गोद पुज़त्र को ले दुलरावै।
साईणदास कबहुं ले अंक।
सुंदर मनहु चंद अकलक ॥६॥
पिखि दमोदरी है बलिहारी।
पारति पुज़त्र प्रीति अुरधारी।
जरे जराअु सु चामीकर के।
भूखन बहु बहिरावनि करके ॥७॥
सूखम झीन३ बसत्र पहिरावै।


१साली।
२कौतक।
३बरीक।

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