Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) २९०

४०. ।खूह ते बैठंा। मज़के तोण फल॥
३९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>४१
दोहरा: पुन नौरंग विच सभा के, बोलो बिसमै होइ।
अदभुत गति को करति है, जानी जाइ न कोइ ॥१॥
चौपई: जस जस कपट हमहु ने ठाना।
करामात ते सभि किछु जाना।
ततछिन सुगम करे दिखराई।
अबि तिस को लेण निकटि बुलाई ॥२॥
करि सनमान समीप बिठावैण।
हित सोण बाकनि कहैण कहावैण।
ठानहु परखनि अपर अुपाई।
करामात की पूरनताई ॥३॥
मिलतोण भी इस को पतीआवैण।
निकटि आपने पिखि बिसमावैण।
करिह कौन बिधि जो बतलावौ।
जिस असमंजस होइ१, जनावौण ॥४॥
सुनि मुज़लां बोलो तिस काला।
इक अुपाअु मैण कहौण सुखाला।
कै तो अग़मत लिहु पतीआइ।
नांहि त मरिहै सो गिर जाइ ॥५॥
सुंदर कूप निकटि चलिजईऐ।
बैठि आप तहि सभा लगईऐ।
चहुदिशि बैठे नर समुदाया।
इक सम फरश देहि थल छाया२ ॥६॥
अलख कूप को थल करि देहि३।
जिस बिधि आइ सो न लखि लेहि४।
सुंदर चादर बिसद बिसाल।
छादहु सभि दिशि ते तिस नाल ॥७॥
आवति तहां देहु बैठाइ।

१जिस विच (रामराइ ळ) कठनाई या घबराहट पवे।
२थां ळ ढक देईए।
३भाव खूह दा लखिआ जा सके, बल पिआ मलूम होवे।
४इस तर्हां नाल कि ओह आवे ते परख ना सके।

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