Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) २९१
४२. ।रामराइ बाबत भविज़खत वाक॥
४१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>४३
दोहरा: अगली भई प्रभाति जबि, सौच समेत शनान।
करि बैठे श्री सतिगुरू, जिन दरसन सुख खान ॥१॥
चौपई: आदि गुरबखश मसंद बिलद।
अरु पुरि के सिख सेवक ब्रिंद।
सभि मिलि करि दरशन कअु आए।
करि जोरहि पग सीस निवाए ॥२॥
दरशन पर होवति बलिहारी।
अुर शरधा धरि करि नर नारी।
बाल आरबल माधुर मूरति।
दिपति बिभूखन सुंदर सूरति ॥३॥
चपल बिलोचन बोलति बाती।
दंत पंकती हीरन क्राणती१।
जिस दिशि देखित द्रिगनि चलाए।
रुज हरि, जनु अंम्रित बरखाए ॥४॥
धंन गुरू गुर धंन अुचारैण।
सुखद सुशील सिज़ख हितकारैण।
तिस छिन महि गुरबखश मसंद।
बोलो बाक हाथ जुग बंदि ॥५॥पुरि महि बिदति बिलद ब्रितांत।
मिलि मिलि करति परसपर बात।
नौरंग शाहु सभा महि काली२।
ग़िकर आप को भयो बिसाली ॥६॥
बडो भ्रात तुमरो तहि गयो।
तिन भी कहनि सुननि बहु कियो३।
हुतो बीच तहि जैपुरि नाथ।
सुनी होइगी सगली गाथ ॥७॥
जथा जोग सो कहै सुनाई।
१हीरिआण वाणग सोभ रही है।
२कज़ल्ह।
३बहुता कहिंा सुणनां कीता।