Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २९६
जिमि बिहंग दरवेश१ है, संचै न करै हैण।
निति नवीन ले करि अचहिण, ईशुर तिनि दै है।
घर महिण रहै न अंन धन, नहि बसत्र बधीका२।
करो नेम श्री सतिगुरू, ऐसी बिधि नीका ॥२४॥
वाहिगुरू सिख मुख जपहिण, जबि मिलहिण सु दोई।
पैरी पवंा सतिगुरू आपस महिण होई।
जुति सनेह सिमरन करहिण, गुर दरशन पावैण।
नई रीति गुर सदन की पिखि जगत रिसावै ॥२५॥
निदहिण खल बिंदहि नहीण३, -इह मग निरबाना४।
कलि महिण भगति सु मुकति दा, धरम न को आना५-।
पुन सतिगुर इमि नेम किय, चहु बरन मझारा।
आश्रम धारी होइ६ को, आवहि दरबारा ॥२६॥
प्रथम देग महिण जाइ के, भोजन को खावै।
पुन दरशन गुर को करहि, चलि करि ढिग जावै*।जो नहिण अचहि अहार को, सुच संजमवंता।
तिस को दरशन होति नहिण, हटि घर गमनता ॥२७॥
आश्रम बरन जि भेद महिण, नहिण मिलहिण हदूरा७।
खावहिण कुनका देग को, दरसहिण गुर पूरा।
निति प्रति आनहिण अंन को, सिख सेवक जोई।
होति देग बिन तोट के, खावै सभि कोई ॥२८॥
बिदति भए सभि देश महिण, सुनि सुनि सिख आवहिण।
श्री नानक के समेण के+, पहुणचहिण दरसावैण।
श्री अंगद महिमा लखहिण, जे दरस करंते।
सभि आवहिण श्री अमर ढिग, तिन थान लखंते८ ॥२९॥
१पंछी ते फकीर।
२वाधू।
३मूरख जाणदे नहीण।
४इह है कलां दा राह।
५भगती बिना कोई होर धरम मुकती दाता नहीण।
६ब्रहम चरज आदि किसे आश्रम दी मिरजादा ळ धारन करन वाला होवे।
*पा:-आवै।
७भाव गुरू जी दे पास नहीण जा सकदे सन।
+पा:-जे।
८भाव गुरू नानक ते गुरू अंगद जी दी थावेण गज़दी बैठे समझके।