Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) २९४

३५. ।जोगी प्रति अुपदेश। वेदांत॥
३४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि २ अगला अंसू>> ३६
दोहरा: श्री गुर क्रिपा निधान सुनि,
लखि कै सुधि अधिकार।
निरनै कीनसि ब्रहम को, तिस प्रति बाक अुचार ॥१॥
चौपई: भे जोगेशर! अचरज अहै।
अकहि१ ब्रहम को किमु को कहै।नाम अगोचर२ भाखति तांहि।
किसी रिखीक बिशै कबि नांहि३ ॥२॥
तअू जनावन सिज़खनि कारन।
करुना करि गुरु करहि अुचारन।
रचहि समिज़ग्री जो मन अपने।
सज़त प्रतीति होति सभि सुपने ॥३॥
भै को पाइ अुठे बरड़ाइ।
त्रिय संगम ते रेत मुचाइ४।
हसहि कहूं, कबि रुदन पुकारै।
कबहु बिखाद अधिक अुर धारै ॥४॥
जो सुपने महि जाने साचे।
सोग हरख तौ तिह छिन राचे।
जे करि कूर लखहि इहु तबै।
सुपन क्रिया इह होइ न सबै ॥५॥
जिम बाजीगर अपनी माया।
मिज़था लखि सोग न हरखाया५।
जबि सुपना इस को मिटि जावै।
झूठो लखहि न पुन बिरमावै६ ॥६॥
पिखो केहरी सुपने मांही।
जागे ते भागै कित नाही।


१जो किहा नहीण जा सकदा।
२इंद्रयां तोण परे।
३इंद्रीआण दा (अुह) विशा नहीण।
४बीरज पात हुंदा है।
५बाजीगर अपनी माया ळ झूठी लखके ना सोग ते नां ही हरख करदा है।
६भुज़लदा नहीण फिर।

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