Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २९७

धरहिणकामना अुर बिखै, बिन कहे सु पावैण।
जो अरपति हैण आनि करि, बहु बिनै अलावैण।
एक दिवस के खरचि को, लेवहिण तिन पासे१।
और हटाइ सु देति तिन++, नहिण रखहिण अवासे ॥३०॥
बिदतहि दिन प्रति अधिक ही, निति भगति प्रकाशे।
अग़मति जुति केतिक भए, लहिण सिज़धि सु पासे२।
सेवहिण गुर पग कमल को, करि प्रीति बिसाला।
सिमरन हुइ सतिनाम को, दिन रैन सुखाला ॥३१॥
बसे पुरी महिण आनि के, बहु कीनि निकेता।
केतिक भई दुकान तहिण, बहु बनज समेता।
सभिहिनि की गुग़ारन हुइ, थुरि है नहिण कोई।
बिना रोग सुख भोग जुति३, बसिबो तिन होई ॥३२॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज गिं्रथे प्रथम रासे श्री अमर दास नित
बिवहार प्रसंग बरनन नाम त्रिंसती अंसू ॥३०॥


१पासोण।
++पा:-तिस।
२पास रहि करके।
३समेत।

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