Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) २९५
३८. ।सज़चखंड गवन॥
३७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>३९
दोहरा: पंचहु सिख परवाह करि,
सतिगुर तन तिस काल।
मंद मंद रोदति अधिक,
संकट पाइ कराल ॥ १ ॥
चौपई: कहि जेठा वडहंसहि गावो।
गुर प्रलोक भा शबद सुनावो।
काराग्रहि थल पापी बैसे।
करति प्रतीखनि-आइ न कैसे१? ॥२॥
बडी देर लागी नहि आए।
कहां भई गति? लखी न जाए-।
इतने महि अुतलावति आवा२।
सेवक संग किते करि लावा३ ॥३॥
तूरन आइ तीर पर हेरे।
-परे चादरे तानि बडेरे।
बहु दिन भए न सुपतनि दीनि।
पिखि अवसर कोनिद्रा लीनि ॥४॥
अबि सूधो भा मानहि नाता।
धरम जानि ते अुर डरपाता-।
निकटि गयो नर ले समुदाए।
सुपति जानि करि दुशट अलाए ॥५॥
किम तुम को अबि निद्रा आई?
हुइ निचिंत सोयो सुख पाई।
सुता कुमारी मैण नित हेरे।
तजी नीणद दिन बिते घनेरे ॥६॥
तबि बिधीए बहु रोइ सुनायो।
दुशट पातकी! पाप कमायो।
तुव सिर चढे दोश बड दै कै।
१(गुरू जी) किअुण नहीण आए।
२(चंदू) आइआ।
३कितने कु नाल करके।