Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) २९८
३१. ।सावं मज़ल ळ हरी पुर भेजंा। राजे दा पुज़त्र जिवाअुणा॥
३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>३२निसानी छंद: सिज़खी मग प्रगटाइबे, श्री सतिगुर पूरे।
देहिण दरस बहु संगतां, सिज़खन इछ पूरे।
इक दिन बज़लू खरे हुइ, निज अरग़ गुग़ारी।
सुनहु प्रभू! पतिशाहु तुम, सिख पीर बिदारी१ ॥१॥
चार बरन के लोक गन२, बसिबे हित आए।
नीके बने निकेत नहिण, यां ते अकुलाए।
चरन भरोसे आप के, इह आनि बसे हैण।
ग्रहि मंदर सुंदर बिना, सुख नहीण रसे हैण ॥२॥
क्रिपा होइ जबि आप की, घर अुसरहिण सारे।
नर नारी सुख पाइ रहिण, अपने परवारे।
प्रापति वसतू अपर सभि, काशट नहिण पावैण३।
दीरघ दार बिहीन४ घर, कैसे अुसरावैण ॥३॥
शरन परे सभि आप की, आन न बिशवाशा।
ग़िकर करति निति काठ को, नहिण आवति पासा५।
सुनि प्रसंन सतिगुर भए, कहि दीनि दिलासा६।
काशट आवहि बहुत अबि, करि लेहिण७ अवासा ॥४॥
भ्राता को इक सुत हुतो, सावं मल नामू।
निकट हकारो तांहि के, बोले सुखधामू।
राज हरीपुर को जहां, तहिण को गमनीजै।
दीरघ दार समूह जो, निज पुरी अनीजै ॥५॥
बेड़े बाणधो तहां ते,सलिता महिण डारो।
जाइ बिलब न लाईए, तूरनता धारो।
आवहि काशट बहु इहां, नर लेहिण निकासे।
१सिज़खां दी पीड़ा ळ दूर करन वाले हो।
२बहुते।
३लकड़ी (अुसारी वाली) नहीण मिलदी।
४लमीआण लकड़ीआण बिना।
५गज़लां करदे हन नित (आपो विच) कि (साडे किसे यतन नाल) काठ हथ नहीण आअुणदा
(अ) (बाहर) रोग़ लकड़ीआण दी गज़ल बात करदे हन, पर आप जी पास (अदब करके) नहीण
आणवदे।
६दिलासा दे के किहा:।
७अुसार लैं।