Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) २९६
बिधी चंद गुर साथ बखानी
मो प्रति हुकम देहु फुरमाइ।
तहि संग्राम भयानक माचो
पहुचौण शीघ्र सु बनौण सहाइ ॥२२॥
सुनि सतिगुरु ने आइसु भाखी
तिह सथान पर जुटिगे बीर।
जाहु छुटाइ तांहि हटि आवहु,
ठहिरहु नहि चिर काल, सुधीर!
सुनति तुरंगम गयो धवावति
संग लिए जोधा गन भीर।
मारि मारि करि जाइ परे तबि
हते हग़ारहु गिरे सरीर ॥२३॥
खड़ग प्रहारति सुभग१ बडेरे
दुहि दिशि ते माचो घमसान।
भई लोथ पोथनि अनगन तहिमारि मरे गिरि गे तिस थान।
बिधीचंद पहुचो तिस थल थिर
छीन पताका लीनि सुजानि।
कितिक कटे अर कितिक पलाए
निज थल पर सिख भे सवधान ॥२४॥
गए२ दौर करि, पिखहि न पाछे,
जहां बिलोकति अबदुलखान।
३कतल पठान घने तहि गिरि गे,
भागी चमूं त्रास को ठानि।
लीनी छीनि पताका तुमरी
भयो बिसाल तबहि घमसान।
अरो न कोई, खरो न होवा,
परो महां रण, थिरो न थान ॥२५॥
कटे तहां ही हटे न थोरे,
१स्रेशट।
२(पठान) गए।
३अबदुल खां ळ किहो ने।