Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रतापसूरज ग्रंथ (रुति ५) २९८

३१. ।इक माई कोलोण दुज़ध पीता। धन देवाणगे मरवावाणगे॥
३०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>३२
दोहरा: चढे इकाकी सतिगुरू,
आवलखेड़ी१ ग्राम।
पहुचे तिस थल जाइ करि,
अुतरे हित बिसराम ॥१॥
चौपई: इक बिज़्रधा ने गुरू पछाने।
शरधाधिक२ प्रणाम पग ठाने।
पुन गहि करि गुर हय को लीनो।
एक जाम जबि बीतन कीनो ॥२॥
देखति खोज सिंघ चलि आए।
सेवक अरु समाज समुदाए।
तबि कर जोरि ब्रिधा कहि माई।
प्रभु जी! कुछ प्रसादि लिहु खाई ॥३॥
बिन बिलब ते करहु तारी३।
अचहु इहां, पुन करि असवारी।
देखि श्रधा को सतिगुर बोले।
हाग़र जो प्रसादि हुइ सो ले४ ॥४॥
सुनि बिरधा ततकाल सिधारी।
बासन दुगध अुठायहु भारी।
ले करि मधुर सहित५ तहि आई।
धरो सरब प्रभु के अगुवाई ॥५॥
जुति मिशटान सु दुगध मलाई।
सीतलकीनसि बायु झुलाई।
स्री प्रभु को भरि दीयो कटोरा।
करो पान रुचि जितिक, सु छोरा६ ॥६॥
पीछे कीन सभिनि ही पाना।


१नाम पिंड दा।
२शरधा वधी ते।
३मैण तयार करदी हां।
४ओही लै आ।
५मिठे संे।
६(बाकी) छज़ड दिज़ता।

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