Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) २९९
३४. ।श्री गुरू अरजन जी पोथीआण लैं गए॥
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दोहरा: सुनि बुढे के बचन को,
-मिलहि न खुलहि धिआन।
तिस पर बस कैसे चलहि,
कहो सुनहि नहि कान ॥१॥
अड़िज़ल: दर के भेर किवार, समाधि लगावतो।
नित ही मसत सुभाव, न कोइ बुलावतो।
रहैण दूर लहि त्रास, समीप न जाति को।
है क्रोधति अुचरै स्राप, सु चहति इकाणत को ॥२॥
हमरे पित के साथ, रिसावति ही रहो।
गुरता प्रापति नांहि, दैश यां ते चहो।
श्री गुर तिन के पिता, बिरध तन बय महां।
हो कहयो न मानयो बाक, प्रेम ते बहु कहा ॥३॥
इस कारन ते दुलभ, शबद सभि गुरनि के-।
श्री अरजन चितवंत, काज निज पुरन के१।-आप जाइ चलि पास, सु कीरति को कहैण।
हो सुने जि होइ प्रसंन, पोथीआण सभि लहैण ॥४॥
बिन हमरे तहि गए, हाथ नहि आवई।
अपर न किसहूं पास, जि तहां लिखावईण।
अुचरहि सुजसु बिसाल, प्रसंन जि होवई।
हो सादर देहि बुलाइ, क्रोध अुर खोवई ॥५॥
बडिअनि इहै सुभाव, सरलता जानि कै।
सुजसु सुनति रिस हानि, कहो लेण मानि कै।
धरैण सु अुर बिसवास, काज हुइ जावई।
हो यां ते चलिबौ बनहि, न संसै आवई- ॥६॥
श्री गुर अरजन नाथ, बिसाल बिचारि कै।
-करिबो बनहि जरूर, आलसो टालि कै।
सभि जग पर अुपकार, बीड़ श्री ग्रिंथ की।
हो बिदतहि कलि महि अधिक, रीति शुभ पंथ की ॥७॥
जियत जीवका बनहि, सु लाखहु नरन की१।
१आपणे कंम दे पूरा करने लई।