Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ३००
४३. ।धमधां दा राहक। तिखां सिज़ख। कैणथल॥
४२ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>४४
दोहरा: श्री सतिगुर धमधान महि,
बासर बसे बिसाल।
लमे देशनि संगतां,
देश अपर जे जाल ॥१॥
चौपई: खोजति सुनति चलति गन आवैण।
श्रमत पहुंचि दरस को पावैण।
जोण जोण आइ दूर ते दास।
चित महि करते प्रेम प्रकाश ॥२॥
तोण तोण बड फल के अधिकारी।
होइ सिज़ख हंकार निवारी।
मनो कामना प्रापति होइ।
सुजसु बखानति आवति सोइ ॥३॥घनो दरब गुर के ढिग होवा।
अरपि संगतां दरशन जोवा।
करति रहो इक राहक सेवा।
बैठहि आइ निकटि गुरु देवा ॥४॥
केतिक दिन बिताइ सो गए।
तारी करति कूच की भए।
तबि सो राहक पास हकारा।
हुतो जु दरब दयो तिस सारा* ॥५॥
हुकम करो बड कूप खनावहु।
धन गन लाइ नीक बनिवावहु।
इस थल धरमसाल चिनवावहु।
को सिख साध बहुर बैठावहु ॥६॥
ब्रिंद महीरुह सफल१ मंगावहु।
धन को खरचहु बा लगावहु।
शरधा सहित काज इह करो।
*ताग ते अुपकार ब्रिती किंनी वज़डी है, जो माया आई है एथे ही साध संगत दे सुख लई
धरमसाल ते खूह ते खरच करके चज़ले हन।
१फलां वाले ब्रिज़छ।