Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) ३०२
साध जैत कर जोरि अुचारा।
आज दे ते लेहु भंडारा।
श्री दादू अस हुकम बखाना।
आइ जि इहां सभिनि दे खाना ॥३१॥
यां ते लीजहि भाअु हमारो।
दल जुति कीजै अंगी कारो।
श्री प्रभु जी सुनि कै मुसकाए।
पतिआवन हित तांहि अलाए ॥३२॥
हमरे संग बाज बहुतेरे।
नहि अहार पायो इस बेरे।
इन को त्रिपति प्रथम करि लीजै।
पाछे हमहु दे कहि दीजै ॥३३॥
सुनति साध अुपजी दुचिताई।-इहु अनबन कैसे बनि आई।
धमर अहिंस सदा हम मांही।
बाज मास बिन त्रिपतैण नांही ॥३४॥
सतिगुर भी जानति इम आछे।
तअू हमहु ते आमिख बाणछे१-।
हेतु परखिबे लखीअति ऐसे।
समझ रिदे बोलयो तबि तैसे ॥३५॥
रावरि बाजन ब्रिंद अगारी।
आज करैण हम बिनै अुचारी।
साधन की सो मरग़ी मानहि।
करहि जुवार बाकुरी खानहि ॥३६॥
अंन संग त्रिपतावौण सारे।
बहुर लीजीअहि आप अहारे।
सुनति साध ते गुरू अुचारा।
हम भी मानहि करहि अहारा ॥३७॥
सुनि कै साध गयो हरखाइ।
तारी करी सकल बिधि जाइ।
पीछे सिंघ परसपर मिलि करि।
१मास मंगदे हन।