Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) ३०२
३७. ।गुरू जी दे हग़ूर॥
३६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>३८
दोहरा: ले गमनो पिखि पंथ को,
होवति रिदै अनद।
गावति सतिगुर के सबद,
अुमगे प्रेम बिलद ॥१॥
स्री मुखवाक:
आसा महला ५ ॥
अपुने सेवक की आपे राखै आपे नामु जपावै ॥
जह जह काज किरति सेवक की तहा तहा अुठि धावै ॥१॥
सेवक कअु निकटी होइ दिखावै ॥
जो जो कहै ठाकुर पहि सेवकुततकाल होइ आवै ॥१॥ रहाअु ॥
तिसु सेवक कै हअु बलिहारी जो अपने प्रभ भावै ॥
तिस की सोइ सुणी मनु हरिआ तिसु नानक परसंि आवै ॥२॥७॥१२९॥
चौपई: इज़तादिक गुर सबदनि गावै।
अूची धुनी प्रेम अुमगावै।
ग्राम नगर जो मग महि आवै।
वहिर वहिर बिन त्रास सिधावै ॥२॥
धीरज देति चलावति घोरा।
जिस ते श्रमति होहि तन तोरा।
मजल प्रथम की चलनि बिसाला।
रहो बंद* हय भा बहु काला१ ॥३॥
महां चतुर शुभ बुधि अुपजावति।
आछी रीति चलो मग जावति।
सरिता जुगल एक थल बहैण।
पहुचो तहां नीर बड अहै ॥४॥
लखि शुभ घाट अुतारो घोरा।
चरनन को ग़ानू लगि बोरा।
तरि करि पार भयो सभि बारी२।
लखहि भेव सभि दूसर बारी३ ॥५॥
*पा:-जाअु बंद।
१घोड़े ळ बंन्हिआण रहिआण बहुत समां हो गिआ सी।
२सारा जाल।
३(किअुणकि) दूसरी वारी (आइआ है) इस करके सारा भेत जाणदा है।