Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) ४२

५. ।मज़खं शाह बकाले॥
४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>६
दोहरा: इस प्रकार पहिले दिवस, पठे सु नर सोढीनि।
निज निज कहति महातमनि, लोभ लहिर महिलीन ॥१॥
चौपई: भई निसा तबि मज़खं शाह।
गिनहि गटी अनगन मन मांहि।
-का करतज़ब मोहि कहु अहै।
इह सभि निज निज दिशि को चहैण ॥२॥
गुरु पूरन की अस नहि बाती।
जो सभि जग दाता बज़खाती।
सभि के जाचै देवति जोइ।
तिस की दशा सु अस कस होइ ॥३॥
धन हित मो पहि मनुज पठाए।
अनिक भांति की बात बनाए।
निज निज अुसतति कहि हित पाइ।
हुंडी निधन शाहु के भाइ१ ॥४॥
मम धन जो गुरु ढिग नहि जाइ।
असमंजस२ मुझ को बनिआइ।
भए सहाइक सागर मांहि।
भयो धनी तिन क्रिपा सु पाहि ॥५॥
पहुचै भेट न तिन के पाही।
इस ते बडो दोश को आही।
मुझ ते जानो परै न कोई।
दरशन करौण दरब दिअुण सोई ॥६॥
कौं जुगत ते गुर को पावौ।
कहि निज मन की आस पुचावौण।
आवनि सफल होहि तबि मेरा।
दरशन करि परसौण गुर पैरा- ॥७॥
रिदे बिचारति इम फुरि आई।
-दइ दुइ मुहर देअुण सभि तांई।


१निरधन शाहदी हुंडी वाणू।
२अयोग।

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