Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) ४२
४. ।अजगर मुकत॥
३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ९ अगला अंसू>>५
दोहरा: इक दिन बैठे सभा महि,
श्री सतिगुर हरिराइ।
संगति दरशन को करहि,
मन बाणछति फल पाइ ॥१॥
सैया छंद: देश बिदेशबिशेश संगतां
दरस अशेश करति हैण आइ।
जहि कहि सुजसु बिसद जग पूरन
मनहु चांदनी बडि दिपताइ।
करामात साहिब अुपकारी
जथा बचन कहि तिम हुइ जाइ।
रिसि प्रसंनता सफल तुरत जिन
देण बर स्राप नहीण निफलाइ ॥२॥
चौर ढुरति दुहुदिशि छबि पावति
चोआ अतर गंध महिकार।
इक सौ इक१ पट जामा गर महि
अंग बिभूखन भूखति चारु।
करहि सिज़ख अरदास अगेरे
क्रिपा भरे द्रिग लेति निहार।
आयुध गहे सथित गन योधा
चहूं कोदि गुर के परवार ॥३॥
इक सिख हाथ जोरि करि बोलो
श्री सतिगुर तुम नाथि अनाथ।
किव सेवा रावर की करि है
जे निरधन सिख पाइ न आथि२?
होइ दारिदी करे जतन भी
तअू न प्रापति कित धन हाथि।
सो का करै प्रसंन करनि को
जिस ते होवै जनम सकाथ? ॥४॥
११०१ कलीआण दा।
२माइआ।