Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३०६

ग़रीदार गुंफे१ जिस लटकति
अूपर रुचिर चंदोआ तानि ॥३॥
इज़तादिक सुस्रखा२ कीनसि
महिमा पिख सगरे बिसमाइ।
-गुर समरज़थ महां सभिरीतिन
न्रिप सुत म्रितु को दीनि जिवाइ-।
कितिक दिवस महिण न्रिप सिख होयहु
पुन सभि सिज़खी के मग आइ।
वाहिगुरू सिमरहिण सुख पावहिण
चित इज़छा कहि देति पुजाइ ॥४॥
पुन सावं मल न्रिप संग भाखो
हमरे सदन बिपासा तीर।
चाह दार दीरघ की तिह ठां३
इक ठां करहु बिसाल शतीर।
बेड़े बंधहु काशट गन के
द्रिड़ करि बीच डारीए नीर।
तरन हार४ नर संग सिधावहिण
सने सने तरि पाइण बिहीर५ ॥५॥
गोइंदवाल नगर तट अूपर
तहां जाइ सगरो निकसाइण।
इमि सुनि भूप हरीपुर के तबि
बहु नर दीने कार लगाइ।
काशट को बटोर बहुतेरा
खाती ते तछाइ६ चिरवाइ।
दीरघ लै+ लकरी करि संचै


१फुज़मण।
२सेवा
।संसा: शुश्रखा॥।
३बहुत लकड़ीआण दी लोड़ है ओथे।
४तारू।
५तर के वहीर पाअुण भाव चलदे जाण।
६काठ ळ बहुता इकज़ठा करवाके तरखां तोण तज़छवा के।
+पा:-लघु।

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