Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३०४४४. ।जै सिंघ दी पटराणी प्रीखा॥
४३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>४५
दोहरा: एक दिवस तुरकेश कहि,
जै पुरि नाथ कि साथ।
बाल बैस श्री हरिक्रिशन,
निमहि हिंदु पद माथ ॥१॥
चौपई: अपर लोक जुति तुम भी कहो।
करामात साहिब बड लहो।
सुजसु सुनावति है सभि कोई।
इकि ते सुनि दूसर सुधि होई ॥२॥
कहा कही है सभिहिनि बीच।
देखा देखी अूच रु नीच।
तुम भी कबि परखो कै नाहि?
पिता लीनि को इक बिधि काहि१? ॥३॥
जे पूरब परखो नांहि कबै।
अुचित पता लैबे कहु अबै।
जिम अग़मत कामल पहिचानहु।
सहित नम्रिता तैसे ठानहु ॥४॥
सुनि जै सिंघ बोलो कर जोरि।
कुछ दुरबाक न कहि मुझ ओर।
अस पुरखनि को परखनि करनो।
लघु सरपनि सोण खेलनि बरनोण२ ॥५॥
जिन के डसे न बनै अुपाइ।
मति बिसाल को अुबरि न पाइ३।
तअू आप के कहिबे करि कै।
शरधा दासनि सज़द्रस धरि कै ॥६॥
रचौण बिधी कोपूजनि करिहौण।
पुन मैण तुमरे निकटि अुचरिहौण।
कहति शाहु मिलिबे फल जोई।
१किसे तर्हां कोई इक पता (ळ) बी लिआ है?
२ऐसा वरणन कीता है कि छोटे सज़पां नाल खेलन तुज़ल (खतरनाक है)।
३वज़डा बुधीमान भी कोई बचा नहीण सकदा।