Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 291 of 386 from Volume 16

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) ३०३

३९. ।बाहर डेरा करना॥
३८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ४ अगला अंसू>>४०
दोहरा: अूचे थल पर सतिगुरू,
डेरा दियो लगाइ।
थिरो खालसा जाइ करि,
फते जंग ते पाइ ॥१॥
चौपई: कलीधर के पग सिर धरि धरि।
परम प्रेम ते दरशन करि करि।
थिरो खालसा श्रम परहरो।
किनहु शनान सुचेता करो ॥२॥
घाइल सालपज़त्र को पाइ।
निज घावन पर ततछिन लाइ।
मिटी पीर मिलि मास गयो है।
लरिबे को सवधान भयो है ॥३॥
जो मरि गए सु दीने दा।
बसे सरग है कै बडभाग।
बरती देग सरब को जबै।खान पान करि त्रिपते तबै ॥४॥
केतिक सिंघ अगाअू है कै।
जागति रहे सुचेता कै कै१।
नमसकारनी२ तागति रहैण३।
जिन को सुनि सुनि न्रिप डर लहैण ॥५॥
अुत राजन बहु संकट पाए।
मरे सबंधी जिन समुदाए।
कितक रुदति हैण डेरे मांहि।
भ्रात पुज़त्र पित मरिगे जाणहि ॥६॥
किन भोजन खाए नहि खाए।
अधिक शोक जिन बिखै समाए।
प्रजा कि सैना जित कित रोवै।


१सावधान रहिके।
२बंदूकाण।
३चलाअुणदे रहे।

Displaying Page 291 of 386 from Volume 16