Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) ३०४
३९. ।बाबा अजीत सिंघ जी दा युज़ध॥
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दोहरा: श्री अजीत सिंघ बीर बर,
पिखि संग्राम ब्रितंत।
चहो आप निकसन तबै,
गुर को सुत बलवंत ॥१॥
साबास छंद: मनहि बिचारहि। -तुरक बिदारहि।
थिरहि न अंतर१। लरहि निरंतर- ॥२॥
तबि प्रभु तीरहि२। पहुचि सधीरहि।
सतिगुर नदन। करि अभिबंदन ॥३॥रहि कर जोरहि३। पितहि निहोरहि।
सुत दिश नैनहि। करि, कहि बैनहि४ ॥४॥
किम अभिलाखहु? सच बच भाखहु।
सुनि करि बीरहि। कहि धरि धीरहि५ ॥५॥
निज कुल रीतहि। चित महि प्रीतहि।
अबहि समैण शुभ। लखि६ मन मैण प्रभु! ॥६॥
-धरम निबायहु-। मुख फुरमायहु७।
तुरक समूहनि। करि करि हूहनि८ ॥७॥
करहु हटावन। गति रणथावन९।
सुनि बिकसे गुर। कहहि भले अुर ॥८॥
हति तुरकानहि। करि घमसानहि१०।
शुभ पद पावहु। मम मन भावहु ॥९॥
सुजसु बिथारहु। अरि गन मारहु।
१(हुण) अंदर ना ठहिरीए।
२पास।
३हज़थ जोड़ (खलो) रहिआ।
४भाव गुरू जी बोले।
५भाव साहिबग़ादे जी ने धीरज नाल किहा।
६जाणके।
७भाव आपणे श्री मुखोण फुरमा दिओ (कि तूं) जुज़ध धरम या खज़त्री धरम निबाह भाव जंग लई
आगा बखशो।
८हज़ले।
९युज़ध भूमका विच जाके।
१०जंग करके।