Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)३०७

अनिक भांति सुंदर घरिवाइ१ ॥६॥
बेड़े बंधि बिपासा के बिच
नर करि संग सु दिए चलाइ।
गोइंदवाल बिसाल काठ गन
तहिण ते तूरन पहुणची आइ।
वहिर निकासी सतिगुर हेरी,
खरे आप हुइ दई बणडाइ२।
जितिक चहति नर दई तितिक तिन
ले सभि गए आपनी थाइण ॥७॥
निज कुटंब के मानव जेई,
बिज़प्र ब्रिंद, को बाणट सु दीनि।
बाई जात जु खज़त्री कुल की३
गोइंदवाल बास तिन लीन।
सरब जाति सिख सदन करे तहिण
तिन काशट ले निज घर कीनि।
बसन हार पुन अपर जि मानव
बाणछति दीनसि गुरू प्रबीन ॥८॥
श्री गुर अमरदास हुइ ठांढे,
धामनि की अवनी अवलोक४।
जथा जोग बाणटी सभिहिनि को,
ले करि मुदिति५ भए सभि लोक।
आप आपने रचे सदन शुभ
जो गुरु दईसु लीनी रोक६।
बडे भाग जिनि भाल हुते तबि
बसे नगर महिण सदा अशोक ॥९॥
सुंदर सलिता तीर बिपासा७१घड़वाके, भाव छतीरीआण कराके।
२वंड दिज़ती।
३खज़त्रीआण दीआण जातां (विचोण) बाई जातां (दे पुरश)।
४घराण दी ग़िमीण देखके।
५प्रसंन।
६भाव थां मज़ल लई।
७बिआसा।

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