Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ३०५
४०. ।कौलां। पैणदाखान॥
३९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>४१
दोहरा: गुरु इकंत होए जबहि, कौलां दरशन पास।
आई अति मोदति रिदै, प्रविशी तास अवास ॥१॥
चौपई: जनु सुनि कान प्रिय बाति चकोरी।
दौरी निकट चंद की ओरी।
मनहु प्रेम ते है करि बोरी।
कमल खिरे पर आवति भौरी ॥२॥
सुंदर मंदिर अंदर धरीआ।
करि दरशन चरनन पर परीआ।
मनहु रंक कहु प्रापति राजू।
मन महि गिनति -धंन दिन आजू- ॥३॥कमल बिलोचन ते जल डारै।
जनु अनद ते चरन पखारै।
हाथ जोरि सनमुख गुरु बैसी।
मूरति पिखि दिवाकर१ जैसी ॥४॥
कमल बिलोचन बिकसित जाति।
इक टक देखि रही गुरु गाति।
पूरब तप को फल शुभ पायो।
अति प्रमोद चित कहो न जायो ॥५॥
प्रेमातुर चित सतिगुरु देखी।
कहु कौलां! तन कुशल विशेखी?
सरब रीति ते सुख सोण रही?
सुनि म्रिदु बाक आप पुन कही ॥६॥
क्रिपा आप की मो पर जबि की।
पदवी कुशल लही मैण तबि की।
रावरि दरशन इज़छा बिना।
रिदे मनोरथ अुठहि न अना ॥७॥
रही अुडीकति नाम अधारा२।
रुचि सोण अचो न कबहु अहारा।
१सूरज।
२नाम दे आसरे।