Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३०८

नीर बिमल गंगा सम जाणहि१।
पाप बिनाशन पावन सो बहु
जल को अंग सपरशै वाहि२।
तातकाल फल सतिगुर दरशन
जिहिण जोगी धावहिण अुर मांहि३।
बेद समान गिरा गुर सुनिबे
समझनि सुगम अगम तिम नांहि४ ॥१०॥
देग होइ सगरे दिन गुर की
सरब जाति भोजन को खाइण।
जो नहिण खांहिण, न दरशन पावहिण
इही नेम सतिगुर ठहिराइ।
बचहि अहार जु लगर मांही
सो सभि गअूअनि देहिण खुलाइण।
पसू अघाइ शे पुन रहि जो५
सरब बिपासा महिण देण घाइ ॥११॥
निस महिण शे रहिन नहिण पावै
अंन दरब जेतिक चलि आइ।
सभि को देहिण अनदति लेवैण६,
देग बिखै त्रिपतहिण तहिण खाइ।
तातकाल पुरि बसो रुचिर सो
स्री सतिगुर जहिण आप बसाइ७।
जो धरि आइकामना मन महिण
दरशन परसति सो नर पाइ ॥१२॥
अुत सावन की कथा कुछक है,
श्रोता! सुनहु सुजसु गुर केरि।

१जिसदा।
२अुस ळ छूहिआण।
३भाव गंगा दे शनान दा फल मुकती समझदे हन, एथे इशनान करदिआण ततकाल फल मिलदा है
जिस सरूप ळ जोगी धान ला ला धाअुणदे हन जो गुरू अमर देव दे रूप विच परतज़ख दिज़स पैणदा
है।
४तिस वेद वाणू कठन नहीण (बाणी)।
५(जे) पसूआण ळ रजाके कुछ बच रहे।
६सभ ळ दे देणदे हन, (लैं वाले) अनद हो के लैणदे हन।
७वसदे हन (अ) जिस ळ वसाइआ है।

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