Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ३) ३०५
३२. ।भाई गुरदास मसंद। बजरूड़ ळ दंड॥
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दोहरा: अपर मसंदनि की कथा, कहौण कहां लगि शेश१।
को मारति ही मरि गए, जे अघ करति विसेश ॥१॥
चौपई: केतिक छुटे सग़ाइनि पाइ।
है तसकर को२ गए पलाइ।
बनि बनि दीन जु बिनै बखानी।
सो छुटवाइ दीनि गुन खानी ॥२॥
जहि कहि पसरे सिंघ भुजंगी३।
शसत्र केश कछ संग निसंगी।
पुरि ग्रामन ते गहे मसंद।
करे कैद को प्राण निकंदि ॥३॥
देशन ते दरशन कौ आवहि।
हिंदुनि तुरकन तेजदिखावहि४।
कार गुरू की निज निज पास।
राखहि सगरे सांभि अवास ॥४॥
जबि दरशन को सो चलि आवैण।
सकल अकोर हग़ूर चढावैण।
छुटी मसंदन ते सभि संगति।
बिदती अजब रीति की रंगत ॥५॥
इक दिन अूचे थल गुर थिरे।
दूर सअूर बिलोकनि करे।
प्रथम समुख कौ आवहि तुरे।
निकट आइ सलिता दिशि मुरे५ ॥६॥
पिखि नर को तबि तुरत पठायो।
इन कौ बूझहु, को कित आयो?
पूछे धाइ जाइ नर सेई।
हम बराड़ हैण भाखैण तेई ॥७॥
१बाकी।
२कोई।
३सूरमे।
४हिंदूआण ते तुरकाण ळ तेज दज़सदे हन (सिंघ)।
५(गुरू जी दे) नेड़े आके (फिर) नदी वल ळ मुड़ पए।