Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) ३०६
जियति रहौण नहि काज बिचरि हौण।
जो तरतज़ब सु मैण करि लीनसि।
तुमने पूर कामना कीनसि ॥२४॥
सुनि श्री गुर ने बहु सनमाना।
धंन धंन तुम बड बुधिवाना।
दरशन देहु रहहु हित करीए।
नाना जग महि एक निहरीए ॥२५॥
लोकन पर अुपकार तुमारा।
देखति पापनि हरहि बिकारा।
परहि सुमग प्रापति कज़लाना।
जीव मलीन पूत१ हुइ नाना ॥२६॥
सुनि सतिगुर ते म्रिदुल सुहाए।
पुन जोगी ने बाक सुणाए।
नरनि अुधारन तुमरे हज़थ।
अपर किसू महि नहि समरज़थ ॥२७॥
इस हित रावर ने तन धारो।
सज़त नाम सिमरन बिसतारो।
इमु सभि जग को भार जि धरनो२।
तुम बिन अपर कौन इमु करनो ॥२८॥
मुझ को आइसु देहु समावौण।
रहिबे को न संकलप अुठावौण।
अबहि क्रिपा इस बिधि की करो।
जिसु ते आपनि तन परहरोण ॥२९॥
दिढ निशचा जोगी को जाना।
श्री अरजनुबिगसंति बखाना।
करो जथा अभिलाख तुमारी।
जिमु अुचरहु तिम हम अनुसारी ॥३०॥
पुन बुज़ढे मोण गुरू बखानी।
जिम इहु जोगी भाखै बानी।
तिम तुम संग होइ करि करीए।
१पविज़त्र।
२धारन करना।