Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३०९
सादर बास हरी पुर कीनसि,
मनता* जिस की होति बडेर।
जब राजा तिह चरन पखारे
अपरन की गिनती का हेरि।
बंदन करहिण ब्रिंद नर मिलि मिलि
कर जोरहिण करि भाअु घनेर१ ॥१३॥
धरहिण कामना जाचहिण२ आनि३ जु
तिस रुमाल ते पूर करंति।
सुत बित की, कै तन अरोग की
इज़तादिक प्रापति हरखंति।
पाइन४ पास अुपाइन५ अरपति
सरब देशनर जसु अुचरंति।
सिज़खी बिथरी सावन मल की
अग़मत हेरति अुर बिसमंति ॥१४॥
राजा रानी त्रास करति बहु
सेवहिण नित हुइ करि अनुसार।
बहुत मोल के बसत्र मंगावैण
करिवावैण पोशश सभि चारु।
भोजन महिण अमेग़ करि६ मेवे
शुभ शादनि को देति अहार।
ठांढे रहैण दास हित सेवा
हुकम देहिण सो करहिण सुधारि७ ॥१५॥
अस पद अूचो जबहि पहूचो
चित महिण चितवति भा इसि भाइ।
-कारज सुधर गयो सभि गुर को
*पा:-मंनत।
१बहुता प्रेम करके।
२मंगण।
३आके।
४चरन।
५भेटा।
६मिला करके।
७चंगी तर्हां धारन करदे हन। (अ) सुधार के, भाव चंगी तर्हां करदे हन।