Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३१०

पहुणचाए काशट समुदाइ।
पुरि के घर सभि अुसर परहिणगे
बहुरो कुछ बाकी बच जाइ।
गोइंदवाल अुचित है चलिबो
दरसहिण सतिगुर पंकज पाइ१ ॥१६॥
तअू एक चिंता तहिण जैबे
इस रुमाल ते अग़मत वान२।ढिग पहुंचे गुरू लेवहिणगे इहु,
कारज भयो पूर, अुर जानि।
शकतिहीन हुइ हौण तिस छिन महिण
बहुर न करिहै को मम मान।
बडिआई गुर की तबि बिदतहि
मैण बन जावौण अपर समान३ ॥१७॥
इहां रहे ही बने+ बारता
पूजहिण लोक बिलोकि महान।
सेवहिण सरब न्रिपत ते आदिक
अरपहिण अनिक अुपाइन आनि४।
गोइंदवाल गए कया प्रापति
बनो रहोण गुर इस ही थान।
चहोण सु अग़मत ते सभि पावौण
कीरति बिदतहि बहुत जहान- ॥१८॥
इम द्रिड़्ह चित महिण करि तहिण ठहिरो
-नहिण जावौण अब गोइंदवाल-।
कितिक मास बसते तहिण बीते
अंतरयामी गुरू बिसाल।
जानो चित बिकार जुति५ तिस को
पठो हुकम नामा तिसि काल।


१चरन कवल।
२तांबी ओथे जाण विच इक चिंता है कि इस रुमाल करके ही मैण करामाती हां।
३होरनां जिहा।
+पा:-इहां रहे नहीण बने = भाव रुमाल बिनां इथे रिहां।
४लिआके।
५विकाराण वाला (हो गिआ है)।

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