Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १)३११
पठि करि कुछ विलाअु१ लिखि भेजो
आवन देति नहीण महिपाल ॥१९॥
केतिक दिन महिण दरशन करिहौण
श्री सतिगुर सुनि जान वलाअु।
-अग़मत जुकति रुमाल सु ततछिन
गोइंदवाल- चहो -चलि आअु२-।
चितवन ते तूरन ही आयहु
छूछो सावन तहां रहाअु।
जानि गुरू गति बहुत बिसूरति
-मैण कुकरम ही लियो कमाअु३- ॥२०॥
दिन दुइ चतुर बिसूरत बीते
पुन मन महिण समझो इस भाइ।
-राजा रानी सचिव प्रजा जुत
मैण अब चलहुण परहुण गुर पाइ।
भूल करौण बखशावन सगरी
अहैण बिसाल४ न कुछ मन लाइण।
सभि संगत जुति शरनी परिहौण
बिनती करिहौण थिर अगवाइ ॥२१॥
बडिअनि की रिस अगनी समसर
बिनै नीर५ ते होवति शांति।
अवर अुपाव नहीण कुछ बनि है,
करहिण जि बल छल घ्रित पर जाति६-।
इह मति द्रिड़्ह करि कहो न्रिपति को
हमरे बडे तहां अवदाति७।
क्रिपा पाइ तिन की मैण आयहु
बसो बहुत सभि को सुखदाति ॥२२॥१(सावं ने हु: नामा) पड़्हके कुछ बहाना।
२आवे।
३भाव आगिआ भंग कीती है।
४विशाल (चित वाले) हन, भाव जिथे सदा बखशश वज़सदी है।
५बेनती रूप पांी नाल।
६अज़ग अुज़ते घिअु मानो पै जाणदा है।
७प्रगट।