Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३१२
अबि दरशन हित मैण चलि जै हौण
तुम भी चलि करि परसहु पाइ।
अति पुनीत है मेल तिनहुण को
लोक प्रलोक भलो हुइ जाइ।
अुज़तम अधिक अकोरन को लिहु
गुर प्रसंनता ते सुख पाइ।
सभि रणवास१ सचिव अरु सैना
प्रजा लोक संगै समुदाइ ॥२३॥
न्रिप कर जोरे मान बारता
भो तार सभिही संग लीनि।
सावं मल हित सिवका दीनसि
गज बाजी रचि साज नवीन।
बहु डोरे*२ महिखी३ ते आदिक
चढि चाली अुर आनणद कीनि।
भयो अुमाह सभिनि के मन महिण
-दरशन देखहिण गुरू प्रबीन- ॥२४॥
सने सने सभि मारग अुलणघे
गोइंदवाल पुरी को आइ।
नदी बिपासा के तट अुतरेन्रिप महिखी सैना समुदाइ।
धीर दिलासा दे करि तबि ही
सावंमज़ल पुरी प्रविशाइ।
मिलो मेलीअनि सिख सभि संगति
कुशल प्रशन करि४ अुर हरखाइ ॥२५॥
पुन सतिगुर के दरशन कारन
कुछक लाज जुति गमनो पास।
पग पंकज पर सिर को धरि करि
कीन बंदना भाअु प्रकाश।
१राणीआण।
*पा:-डेरे = तंबू।
२डोले।
३पटराणी। ।संस: महिी॥।
४सुखसांद पुज़छके।