Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३१३
मैण रावरि को सिख अर सुत सम
सेवक सदा एक अुर आस।
लघु बिगार दे१, बडे सुधारहिण,
छिमा करहिण अपनो लखि तासु२ ॥२६॥
सिज़खा देति दुलारति सुत को
अवगुन मन महिण धरहिण न कोइ।
अुपजहि लाज बडन के हीअरे
सिख सेवक सुति* खोट३ जि होइ।
बखशहिण खता४ बिरद निज जानहिण,
तुम अंतरयामी सभि जोइ।
कहौण कहां तुम जानहु सगरी
इमि कहि जोर रहो कर दोइ ॥२७॥स्री सतिगुर मुसकाने पिखि कै
क्रिपा सिंधु करि क्रिपा बखान।
सिख, सेवक, सुत अहैण जि मेरे
तिन को चहौण करन कज़लान।
तुव मन महिण हंकार बाधि५ भी
तिस हरिबे हित इमि क्रित ठानि६।
लियो रुमाल, न करि चित चिंता,
अबि भी तुझ दैहोण बहु दान ॥२८॥
देश हरी पुर सहत न्रिपति जुत
इहु संगति सगरी तुझ दीन।
चिरंकाल सुख भोगहु बनि गुर+
मेरी दात न होवहि हीन।
१छोटे विगाड़ दिंदे हन।
२अुस ळ आपणा जाणके।
*पा:-जुति।
३खोट वाला।
४भुज़ल।
५रोग।
६(अुस रोग दे) नाश करन वासते ऐअुण कीता है।
+देखो राजे शिवनाभ ळ मंजी देण दे प्रसंग विखे-मंजी-पद दा अरथ श्री गुर नानक प्रकाश
पूरबारध अधाय ४९ अंक १३।
पुना:-श्री गुर नानक प्रकाश अुतरारध, अधाय ९, अंक ५६, पद-गुर-दी हेठली टूक।