Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) ३११

४५. ।जै सिंघ गुरू जी ळ लैं आया॥
४४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>४६
दोहरा: दिवस दुपहिरो ढरो जबि सकल तार करिवाइ।
जै सिंघ छित पति तजि सदन निकसो वहिर सु आइ ॥१॥
चौपई: सिंघ पौर महि आइ थिरो है।
मुजरो१ नर परधान करो है।
तिस तिस थल पर सकल हटाए।
सादर सो कहि कहि बैठाए ॥२॥
एकाकीआगे चलि आयो।
जहि सतिगुर को सिवर करायो।
आनि प्रवेशो पौर मझारे।
सभि आगे अुठि खरे निहारे ॥३॥
जैपुरि नाथ अचानक आवनि।
लोक बिलोकति भे बिसमावन।
जिस के साथ न मानव भीर।
सभा प्रवेशनि के नहि चीर ॥४॥
-कोण आयोण अबि- गटी गिनते।
-किधौण शाहु इह पठो तुरंते-।
इत अुत देखति द्रिगनि चलाइ।
किस थल पिखे न गुर सुखदाइ ॥५॥
सिज़खनि साथ नाथ जै पुरि के।
बूझनि करे अुताइल करिके।
कहां बिराजे सुखद हग़ूर।
डेरे बिखै कि गमने दूर ॥६॥
निज थल नहीण द्रिशटि मुझ आइ।
तुम नारे किम ते समुदाइ।
सुनि सिज़खनि सभि कहो बुझाई।
इस घर अंतर प्रविशे जाई ॥७॥
एकाकी हुइ सकल हटाए।
कुछ सतिगुर गति लखी न जाए।
करि निरनै गमनो तिस घर को।


१नमसकार।

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