Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३१९

महिपालक आयहु तिस थान।
सनमुख खरे होइ गुरु दरसे
हाथ जोरि बंदन को ठानि।
अुज़तम अधिक अकोरनि को तबि
अरपन लागो बिनै बखानि ॥११॥
सभि बिधि तबि सिज़खन समझाई
फेर नमो करि कीन पयान।
पुन सचिवन दरसे स्री सतिगुरु
अरु सैना के लोक महांन।
महिखी सहत अपर जे दारा
बिसद बसत्र जुति बंदन ठानि।
आवति जाति प्रणाम सु करि करिसीस निवाइण जोर करि पान ॥१२॥
इक राणी सनमुख जबि होई
झटित१ बसत्र ते बदन छिपाइ।
हुती नवीन लाज अुर छाई
मति बिन२, गुर बचन न सिमराइ३।
तिस की दिशि अवलोकन करि कै
सतिगुर बोले सहिज सुभाइ।
इह कमली किस कारन आई
जे हमरो दरशन नहिण भाइ ॥१३॥
ततछिन सुधि बुधि नाश भई तिस,
बसत्र अुतारति दीए बगाइ४।
धाइ अचानक गई वहिर को
मानव घेर रहे समुदाइ।
न्रिपत ब्रितांत सुनो गुर बच को
अधिक त्रास करि अुर बिसमाइ।
शरधा वधी अमोघ५ वाक अस

१छेती नाल।
२मूरख ने।
३याद नां कीते।
४सुज़ट दिज़ते।
५सफले।

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