Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ३१७४२. ।जंग जिज़तंा। अलफ खां दा रातीण नसंा॥
४१ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>४३
दोहरा: कछुक धीर धरि अर रहे, लखि श्री गोबिंद सिंघ१।
दीन तुफंग सु दास कौ, गरजे श्री रण सिंघ२ ॥१॥
पाधड़ी छंद: धरि चांप हाथ हय को फंधाइ।
रिपु समुख होइ करि जीत चाइ*।
बड बेग साथ भाथा मझार३।
काढो खतंग खर मनो मार४ ॥२॥
गुन बिखै संधि करि तान तान५।
रिस धरि बिसाल मुचकंति बान६।
तबि गयो शूक करि बेग भूर।
जिस पेखि भए भै भीत सूर ॥३॥
शज़त्रनि बीच करि रौर डार।
इत अुत तकाहि अुर धीर हार।
पुन अपर तीर सतिगूर निकासि।
धर जेह जोरि कर जोर तास७ ॥४॥
चरड़ंति चांप बरखंति तीर८*।
सरड़ंति जाति बरड़ंति बीर९।
तरयंति शज़त्र१० हतयंति जंग।
अतियंति त्रासि थररंति११ अंग ॥५॥


१वैरी कुछ धीरज धारके अड़ रहे हन, भज़जेनहीण (इह गल) जाणके श्री गुरू गोविंद सिंघ जी
ने.....।
२सतिगुरू जी जुज़ध विच शेर वाण गज़जे।
*पा:-जाइ।
३भज़थे विचोण।
४सरप वरगा।
५चिज़ले विच संन्हके ते ग़ोर नाल तांके।
६छज़ड दिज़ता तीर।
७चिज़ले विच हज़थ दे ग़ोर नाल जोड़के तिस (तीर) ळ।
८धनुख ने चिरड़ कीती ते तीर छुज़टे।
*पा:-बीर।
९शूकदे जाणदे हन (तीर, जिन्हां ळ लगदे हन अुह) चीकदे हन सूरमे। (अ) शूकदे तीर वड़दे हन
सूरमिआण (दीआण देहां विच)।
१०(तकदे हन गुरू जी) वैरीआण ळ।
११कंबदे हन।

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