Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ५) ३२०

३४. ।दिज ळ इसत्रीदिवाई। सिंघां ने सिर सज़दक खोहिआ॥
३३ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ५ अगला अंसू>>३५
दोहरा: घोरे तूरन तोर करि, बसी बसी१ जिस थाइ।
बसि है बास पठां को२, दीनो बिज़प्र बताइ ॥१॥
चौपई: तुरक सुपत जहि सहिज सुभाइ।
जाइ अचानक घेरो पाइ।
सकल ग्राम के जेतिक खान।
देखि सैन को भए हिरान ॥२॥
कितिक दुरे को पूछन लागे।
केतिक दाव पाइ करि भागे।
केचित कहो न दोश हमारो।
दोखी तजहु गह कै मारो३ ॥३॥
किसहु न आगे शसत्र अुठायहु।
गहो पठान सु बंधि चलायो।
दिजनी को इक तुरंग चढायो।
इह कुरीति फल सभिनि सुनायो ॥४॥
गहि दोनहु को, अपर न छेरा।
शीघ्र करति गमने तिस बेरा।
जिस मग गए तिसी मग आए।
कितिक चढे दिन पुरि४ नियराए ॥५॥
सतिगुर सभा मांहि जबि अए।
तबि ले दोनो पहुचति भए।
वाहिगुरू जी की कहि फते।
सभि को भयो हरख अुर अते ॥६॥
दोनहु को गुर निकट बिठाए।
आप अुतर करि श्रम५ बिसराए।
दिज की दारा दिज को दई।आशिख बाद कहो सुख मई ॥७॥


१बसी नामे बसती सी जिज़थे।
२पठां दा घर जिज़थे वसदा सी।
३जो दोखी है अुस ळ छडो भावेण मारो।
४अनदपुर दे।
५आप साहिब अजीत सिंघ जी ने थकान लाही (भाव आराम कीता)।

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