Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ३२४
कौं लरो किन बिघन पसारो,
अरु लकरी थोरी बन लीन?
बाहर बिलम लगी तुझ दीरघ
निज ब्रितांत कहु, ले सभि चीन ॥२७॥
आगै सतिगुर हाथ जोरि करि
अुचरो बन महिण एक बलाइ।
बार खिंडे सिर, नगन अंग ते
मोहि बिलोकतितूरनि आइ।
गर लपटी नख दंत हते बहु,
नीठि नीठि मैण आप छुटाइ।
तिस दिश मेरो बनहि न जानो,
पकरहि धाइ, प्रान बिनसाइ ॥२८॥
समधा लेनि दई नहिण तिस ने
देखति त्रास रिदै अुपजाइ।
परारबध ते छूटन होयहु
नांहि त मारि देति तिसु थाइ।
रहो पुकार न मानव नेरे
आनि छुटावहि जो बलि लाइ।
अपर दिशा ईणधन हित लैबे
मैण गमनहुणगो, भाइ सि भाइ१ ॥२९॥
सुनि करि श्री गुर अमर दास कहि
मत भै करहु सु नहीण बलाइ।
भूप हरीपुर तिस की दारा
भई बावरी सुधि नहिण काइ।
जाहु भोर लिहु कौणस२ हमारी
जबि आवहि तेरी दिश धाइ।
हतहु सीस महिण होइ सु राजी
अपने संग तांहि लै आइ ॥३०॥
सुनि सभि संगति बिसमय है करि
सज़चनि सज़च साथ बच गाइ।
१सुज़ते सुभा (अ) अज जु मेरे नाल इस तर्हां वरती है, (ॲ) (अज मेरे नाल) जो होई सो होई।
२खड़ाअुण।